योजक चिन्ह (-), योजक चिन्ह के प्रयोग | Yojak chinh

yojak chinh – योजक शब्द का मतलब. योजक चिन्ह के वाक्य. योजक चिन्ह का प्रयोग कब किया जाता है. योजक शब्द examples. योजक चिन्ह का उदाहरण. निर्देशक चिन्ह किसे कहते हैं इसका प्रयोग करके दिखाओ.

योजक चिन्ह (-)

हिन्दी में अल्पविराम के बाद योजक चिन्ह (-) का अत्यधिक प्रयोग होता है। किन्तु इसके दुरुप्रयोग भी कम नहीं हुए। हिन्दी व्याकरण की पुस्तकों में इसके प्रयोग के सम्बन्ध में बहुत कम लिखा गया है। अतः इसके प्रयोग की विधियाँ स्पष्ट नहीं होती। परिणाम यह है कि हिन्दी के लेखक इसके साथ मनमाना व्यवहार करते है। हिन्दी व्याकरण में इस पर निश्चित नियमों का अभाव है।

प्रश्न यह है कि योजक चिन्ह के प्रयोग की आवश्यकता तथा उपयोगिता हिन्दी में क्या है ? इसका प्रयोग क्यों किया जाए। उत्तर स्पष्ट है कि योजक चिन्ह वाक्य में प्रयुक्त शब्द और उनके अर्थ को हर प्रकार स्पष्ट कर देता है। योजक शब्दों का उचित ध्यान न रखने की दशा में अर्थ एवं उच्चारण सम्बन्धी अनेक भूलें हो सकती हैं। योजक चिन्ह मूलत: वाक्य में उत्पन्न होने वाली अर्थ, उच्चारण तथा संगठन सम्बन्धी होने वाली त्रुटियों को दूर करने का एक साधन है।

(क) उपमाता  का अर्थ उपमा देने वाला भी है और सौतेली माँ भी। यदि लेखक दूसरे अर्थ को उचित मानता है तो उप और माता के मध्य योजक (उप-माता) लगाना होगा, अन्यथा अर्थ पूर्णतः स्पष्ट न होने की दशा में पाठक भ्रमित हो सकते हैं।

(ख) भू-तत्व का अर्थ होगा, भू या पृथ्वी से सम्बन्धित तत्व, पर यदि भूतत्व लिखा जाता है तब ‘भूत’ शब्द का भाववाचक संज्ञावाचक रूप ही मानना और समझना चाहिए।

(ग) ‘कुशासन‘ का अर्थ बुरा शासन भी होगा और ‘कुशा-आसन’ कुशा घास से बना आसन भी होना चाहिए। पहला शब्द अभीष्ट मानने की दशा में कु के बाद ‘योजक चिन्ह ‘ का प्रयोग होना चाहिए।

उपर्युक्त उदाहरण हिन्दी व्याकरण में योजक चिन्हों के महत्व को उजागर कर देते हैं। शब्दों के निर्माण में इसका बड़ा महत्व है। वर्तमान में हिन्दी गद्य के विकसित रूप में आधार पर इसके प्रयोग के नियम निश्चित होने चाहिए।

योजक चिह्न के प्रयोग

(i) मूलत: योजक चिन्हों का प्रयोग हिन्दी व्याकरण में दो शब्दों को जोड़ने के लिये किया जाता है। योजक चिन्ह से दो विभिन्न शब्दों को जोड़कर एक नया पूर्ण पद बना दिया जाता है। योजक शब्द, सामान्यतः दो शब्दों को जोड़ता है और दोनों को मिलाकर एक समस्त पद बनाता है, लेकिन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। जैसे-माता-पिता, भाई-बहन, धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान आदि। अत: नियम यह है “जिन पदों में दोनों पद प्रधान होते हैं तथा जिनमें ‘और’ शब्द अनुरक्त या लुप्त हो, वहाँ योजक चिन्ह का प्रयोग किया जाता है।
जैसे – घर-द्वार, घर और द्वार, दाल-रोटी, दाल और रोटी, दही-भात, चाल-ढाल, चाल और ढाल, दही और भात, सीता-राम, सीता और राम, फल-फूल, फल और फूल।

(ii) दो विपरीतार्थक शब्दों के बीच योजक-शब्द लगाया जा सकता है। जैसे– ऊपर-नीचे, लेन-देन, माता-पिता, रात-दिन, आकाश-पाताल, राजा-रंक, अपना-पराया, बेटा-बेटी, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, शुभ-अशुभ, लघु-गुरु, विरह-मिलन आदि।

(iii) द्वन्द्व समास में कभी-कभी ऐसे पदों का प्रयोग होता है जिनके अर्थ प्रायः समान होते हैं। ये पद बोल-चाल के होते हैं। ऐसे पदों के बीच योजक पद लगाया जाता है। ये एकार्थ बोधक सहचर शब्द कहलाते हैं। जैसे – मान-मर्यादा, हाट-बाजार, दीन-दु:खी, मणि-माणिक्य, सेठ-साहूकार, सड़ा-गला, आदि।

(iv) जब दो विशेषण पदों का संज्ञा के अर्थ में प्रयोग हो तब वहाँ योजक चिन्ह का प्रयोग होता है-लूला-लंगड़ा, भूखा-प्यास, दवा-दारू, अंधा-बहरा ।

(v) जब दो शब्दों में एक सार्थक तथा दूसरा निरर्थक हो तब वहाँ योजक चिन्ह का प्रयोग होता है-परमात्मा-अरमात्मा, उल्टा-वुल्टा, अनाप-शनाप, चाय-वाय, रोटी-बोटी, खाना-वाना, पानी-वानी, झूठ-मूठ, शाम-वाम, घर-वर।

(vi) जब दो संयुक्त क्रियाएँ एक साथ प्रयुक्त हों, तब दोनों के बीच योजक चिन्ह लगता है। जैसे – पढ़ना-लिखना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, मारना-पीटना, खाना-पीना, मरना-जीना, खाना-कमाना, आना-जाना, करना-धरना, आदि।

(vii) क्रिया की मूल धातु के साथ आयी प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिन्ह का प्रयोग करना चाहिए। जैसे – उठना-उठाना, चलना-चलाना, गिरना-गिराना, फैलना-फैलाना, पीना-पिलाना, ओढ़ना-ओढ़ाना, सोना-सुलाना आदि ।

(viii) दो प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिन्ह लगाया जाता है। जैसे– डराना-डरवाना, भिगोना-भिगवाना, जिताना-जितवाना, करना-करवाना, चलाना-चलवाना, कटाना-कटवाना आदि।

(ix) एक ही संज्ञा का प्रयोग दो बार होने पर उनके बीच योजक चिन्ह लगाया जाता है। इसे द्विरक्ति कहते हैं। जैसे-गली-गली, द्वार-द्वार, गाँव-गाँव, शहर-शहर, नदी-नदी, बूंद-बूंद आदि।

(x) परिणामवाचक तथा रीतिवाचक क्रिया विशेषणों में प्रयुक्त दो अव्ययों तथा ‘ही’, ‘से’ ‘का’न’ आदि के बीच योजक चिन्ह लगाना चाहिए। जैसे-बहुत-बहुत, थोड़ा-थोड़ा, कम-कम, कम-वेश, धीरे-धीरे, जैसे-तैसे, आप-ही, आप, ज्यों का त्यों, बाहर-भीतर आदि।

(xi) जब निश्चित संख्यावाचक विशेषण के दो पद एक साथ प्रयोग होते हैं तो उनके मध्य योजक चिन्ह का प्रयोग होता है। जैसे-दो-चार, एक-एक, सात-पाँच, तीन-पाँच, दस-बीच, सौ-दो-सौ, आठ-दस आदि ।

(xii) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण में जब ‘सा’, ‘से’ आदि शब्द जोड़े जायें तब दोनों के बीच योजक चिन्ह का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे – अधिक-से-अधिक, बहुत-सी बातें, कम-से-कम आदि।

(xiii) ‘गुण वाचक विशेषण’ में भी ‘सा’ जोड़कर ‘योजक‘ का प्रयोग किया जाता है। जैसे – बड़ा-सा पेड़, बड़े-बड़े लोग, ठिगना-सा आदमी, मोटी-सी औरत, बड़ी-बड़ी बातें आदि।

(xiv) जब किसी विशेषण का पद नहीं बनता, तब उस पद के साथ ‘सम्बन्धी’ पद जोड़कर ‘योजक चिन्ह‘ लगाया जाता है। जैसे-भाषा सम्बन्धी चर्चा, प्रशासन सम्बन्धी कार्य, पृथ्वी सम्बन्धी तत्व, विद्यालय सम्बन्धी बातें, राष्ट्रपति सम्बन्धी चुनाव आदि। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिन शब्दों के विशेषण पद’ बन चुके हैं या बन सकते हैं उन शब्दों के साथ सम्बन्धी पद नहीं जोड़ना चाहिए। इसी प्रकार ‘पृथ्वी सम्बन्धी‘ के स्थान पर ‘पार्थिव‘ शब्द का प्रयोग होना चाहिए।

(xv) जब दो शब्दों के बीच सम्बन्ध कारक के चिह्न ‘का’, ‘के’, ‘की’ आदि लुप्त हों तब उन दोनों के बीच ‘योजक चिन्ह‘ लगाया जाता है। ऐसे शब्दों को हम सन्धि या समास के नियमों से अनुशासित नहीं कर सकते हैं। इन शब्दों के दोनों पद स्वतंत्र होते हैं – शब्द-सागर, लेखन-कला, शब्द-भेद, संत-मत, मानव-जीवन, मानव-शरीर, रावण-वध, राम-लीला, प्रकाश-स्तम्भ, राम-नाम आदि।

(xvi) लिखते समय यदि कोई शब्द पंक्ति में पूरा नहीं आता तब उसके पूर्व आधे शब्द के अंत में योजक-चिन्ह लगाना चाहिए। ऐसी दशा में शब्द को शब्द-खण्ड की पूर्णता पर ही तोड़ना चाहिए। जैसे-“खाने में रोटी और चने का व्यवहार अधिक करें।”

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