छन्द के भेद, वार्णिक छन्द, मात्रिक छन्द, मुक्त छन्द, परिभाषा, उदाहरण सहित

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छन्द के भेद

वाक्य रचना में जब वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या, चरण, क्रम, गति, यति, विराम और तुक आदि का नियम माना जाता है, तो वह रचना छन्द कहलाती है। वर्ण तथा मात्रा के विचार से छन्द के 4 भेद हैं – अर्थात छन्द चार प्रकार के होते हैं.

  1. वार्णिक छन्द
  2. वार्णिक वृत्त
  3. मात्रिक छन्द
  4. मुक्त छन्द

वार्णिक छन्द की परिभाषा

जिस छन्द में वर्णों की संख्या को आधार बनाकर उसकी रचना की जाती है, उसे वार्णिक छन्द कहते हैं। वृत्तों की तरह इसमें वर्णों का क्रम निश्चित नहीं होता, केवल संख्या ही निश्चित होती है, इसमें चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं ।

वार्णिक छन्द के भेद

वार्णिक छन्द के दो भेद होते हैं-(i) साधारण तथा (i) दण्डक।

साधारण वार्णिक छन्द – 1 से 16 वर्ण तक के चरण (पाद) रखने वाले वार्णिक छन्द साधारण होते हैं। इससे अधिक वाले दण्डक। हिन्दी का सुप्रसिद्ध घनाक्षरी (कवित्त) तथा उसकी ‘रूप’ तथा देव आदि जातियाँ दण्डक में आती हैं। इसका कारण है कि घनाक्षरी में 31 वर्ण (16वें तथा 15 वर्ण पर यति) तथा अंत में लघु गुरु होते हैं। छन्द के भेद.

रूपघनाक्षरी (32 वर्ण-16-16 वर्ण या प्रत्येक 8वें वर्ण के बाद यति)। कवि देव द्वारा प्रयुक्त देवघनाक्षरी (33 वर्ण-8, 8, 8 तथा 9वें वर्ण पर यति तथा अंतिम दोनों वर्ण लघु)। दण्डक वार्णिक छन्द (घनाक्षरी का उदाहरण) –

“किसको पुकारे यहाँ रोकर जंगल बीच
चाहे जो करो श्याम शरण तुम्हारे हैं।”
देव घनाक्षरी -“लखि घनश्याम तन, मोर है मगन मन,
सुमन सकल अलि, गावहि गुनन-गुनन
जीवन को जीवन प्रदायक सबहि विधि,
नाचै वन सीकर सुधारन छनन छनन।”

रूप घनाक्षरी का उदाहरण – प्रत्येक चरण में 32 वर्ण तथा अंत में लघु गुरु होते हैं। 16-17वें वर्ण पर विराम होता है।

हरी-हरी घास आस-पास फूली सरसों है
पीली-पीली बिन्दियों का चारों ओर है प्रसार।
कुछ दूर विरल, सघन फिर और आगे
एक रंग मिला चला गया पीत पारावार
गाढ़ी हरी श्यामता की तुंग सारी रेखा बनी
बाँधती है दक्षिण की ओर उसे छेर-घार।।”

साधारण वार्णिक छन्द – (26 वर्ण तक) में अमिताक्षर (छन्द को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। यह वास्तव में घनाक्षरी एक चरण के उत्तरांश से निर्मित है। इसमें 15 वर्ण होते हैं। 8 तथा 7 के बाद यति होती है।

“चाहे जो करो श्याम (8 वर्ण)।
शरण तिहारे हैं (7 वर्ण)।

वार्णिक वृत्त की परिभाषा

वह सम छन्द जिसमें 4 समान चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले वर्गों का लघु-गुरु क्रम सुनिश्चित रहता है। उसे वार्णिक वृत्त छन्द कहते हैं।” गणों में वर्णों का बँधा होना प्रमुख लक्षण होने के कारण इसे वार्णिक वृत्त गणबद्ध (गणात्मक) छन्द कहते हैं।” 7 भगण तथा 2 गुरु का मत्त गयंद सवैया इसके उदाहरण हैं।

ऽ।।    ऽ।।    ऽ।।    ऽ।।
भगण भगण भगण भगण
या लकुटी अरु कामरिया पर
भगण भगण भगण गग
राज तिहूँ पुर को तजि डारौ।।

कुल 7 भगण + 2 गुरु = 23 वर्ण।

द्रुत विलम्बित‘ और ‘मालिनी‘ आदि इसके गणबद्ध वार्णिक वृत्त हैं।

मात्रिक छन्द की परिभाषा

Matrik chhand kise kahate hain – जिन छन्दों में मात्रा की गणना का आधार लिया जाता है, मात्रिक कहलाता है। वार्णिक छन्द के विपरीत इन छन्दों में वर्गों की संख्या भिन्न होते हैं तथा ये गणबद्ध भी नहीं होते। ये गण-पद्धति या वर्ण संख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रा पर ही आधारित हैं। दोहा और चौपाई आदि मात्रिक छन्द हैं। जैसे-दोहे (एक तथा तीन में 13 मात्रा और 2 तथा 4 में 11 मात्रा होती हैं.

मुक्त छन्द की परिभाषा

चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छंद गति और भावानुकूल यति विधान ही मुक्त छन्द की विशेषता है। इसका कोई नियम नहीं। यह लयात्मक काव्य है जिसमें पद्य का प्रवाह अपेक्षित है। निराला से नयी कविता तक हिन्दी कविता में इसका पर्याप्त प्रयोग हुआ है।

चरण – किसी छन्द की प्रधान यति पर समाप्त होने वाली पूरी पंक्ति को उस छन्द का चरण कहा जाता है।’ इसे पद (पाद) भी कहते हैं। सामान्यतः छन्द में चार चरण होते हैं। कुछ छन्द 7 चरणों वाले भी होते हैं। जैसे-छप्पय।

चरणों की मात्रा

यति और गति के आधार पर हिन्दी छन्द की तीन प्रमुख जातियाँ हैं – सम, विषम तथा अर्द्ध सम।

(i) सम -“जिन छन्दों में सभी चरण समान हैं, वे छन्द सम जाति के हैं। उदाहरण- ‘मुझे नहीं ज्ञात कि मैं कहाँ हूँ.

प्रभो ! यहाँ हूँ अथवा वहाँ हूँ।  (उपेन्द्र वज्रा) 11-11 मात्राएँ

(ii) विसम -“जिन चरणों में दो चरण अधिक समान न हों उन्हें विसम जाति का छन्द कहते हैं। ऐसे छन्द प्रचलन में कम हैं। उदाहरण-छप्पय।

(ii) अर्द्ध सम -“जिनमें कुछ चरण (पहला-तीसरा) एक समान हो तथा (दूसरा- चरण) उनसे भिन्न हों किन्तु आपस में समान हों, वे अर्द्ध समान छन्द होते हैं। जैसे-दोहा।

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प्रमुख छन्दों का परिचय (सम) छन्द के भेद

(1) चौपाई – इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं तथा अंत में गुरु (51) लघु नहीं होने चाहिए। उदाहरण-

‘बाल चरित प्रभु बहुविधि कीन्हा।
अति आनन्द लोगन कह दीन्हा।
भोजन करत बुलावत राजा।
नहि आवत तजि बाल-समाजा।।”

(2) रोला – मात्रिक सम छन्द है। प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ (11, 13) होती हैं। उदाहरण-

“तरनि-तनूजा-तट-तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों, जल परसन हित मनहुँ सुहाए।।
जमुना जल में लखत उझकि, सब निज-निज शोभा
कै उमगे प्रिय-प्रिया के अनगिन सोभा।।”

(3) हरिगीतिका – इसके प्रत्येक चरण या दल में 28 मात्राएँ होती हैं ( 16, 12 पर यति) तथा चरण के अंत में लघु गुरु (15) होते हैं। उदाहरण-

“पाई में केहि गाति पतित पावन राम भजि सुनु सठमना।
गनिमा, अजामिल, व्याघ, गीध गजादि खल तारे घना।
आफिर, कफन, किरात, खस, स्वपचादि अति अद्य रूप जो
कहि माद्य वाहक तेपि पावन होहि राम नमादि ते।।”

(4) गीतिका – प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं। 14, 12 पर विराम होता है। चरण के अंत में लघु-गुरु (15) होता है। उदाहरण-

“हे प्रभो ! आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक, वीर व्रतधारी बनें।।”

(5) बरवै (विषम) – इसके प्रथम और तृतीय चरणों में 12 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 7 (सम) मात्राएँ होती हैं। उदाहरण-

“चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हिलाय।।”

(6) दोहा – इसके प्रथम और तृतीय चरण में 13 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में ।। मात्रा होती हैं। चरणान्त में लघु (।) होना आवश्यक है। उदाहरण-

“उदित उदय-गिरि मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन-भुंग।।”

(7) सोरठा – यह दोहे के उल्टा होता है। इसके प्रथम और तृतीय चरण में 11-11 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण-

“रघुवर बाल-पतंग, उदित-उदय गिरि मंच पर।
हरषे लोचन-भंग, विगसे संत-सरोज सब।।”

(8) उल्लाला (उल्लाल) – इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्रा होती हैं। प्रथम तथा तृतीय चरण में 15 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण-

“करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की,
हे मातृ भूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।।”

(9) छप्पय – इस छन्द में 6 चरण होते हैं। प्रथम चार चरण रोला छन्द के होते हैं तथा अंतिम 2 उल्लाला के होते हैं। उदाहरण-

“नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है। 11 + 13 = 24 रोला
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।

फूल- न-तो मण्डन हैं। 11+ 13 = रोला
बन्दी जन खग-वृन्द, शेफफल सिंहासन हैं।

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की।  15 + 13 = उल्लाला
हे मातृभूमि ! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।।

(10) कुंडलियाँ – इसके 6 चरण होते हैं। आरम्भ के दो चरण दोहा तथा वाद के चार चरण उल्लाला के होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। (13 + 11) दोहे का प्रथम चरण रोला के आरम्भ में रखा जाता है। दोहे का सर्वप्रथम रोला के अंतिम चरण के अन्त में रखा जाता है। इस प्रकार इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण-

“घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध। 13 + 11 दोहा
बाहर का बक हंस है, हंस घरेलू गिद्ध
हंस घरेलू गिद्ध, उसे पूछे ना कोई।

जो बाहर का होइ, समादर ब्याता सोई। उल्लाला
चित्तवृत्ति यह दूर, कभी न किसी की होगी।
बाहर ही धक्के खायेगा, घर का जोगी।।”

(11) सवैया – इसके प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं। सवैया की कोटि में एक से अधिक छन्द होते हैं। उदाहरण-

(i) मदिरा सवैया (22 वर्ण, 7 भगण तथा अंत में एक गुरु) होते हैं।
(ii) मालती या मत्त गयंद (23 वर्ण,7 भगण एवं दो गुरु) होते हैं।
(iii) दुर्मिल सवैया या चन्द्रकला (सुन्दरी) (24 वर्ण तथा 8 सगण) होते हैं।

“लोरी सरासन संकट कौ, सुभ सीय स्वयंवर मोहि बरौ।
नेक ताते बढ़यो अभिमानमहा, मन फेरियो नेक न संककरी।
सो अपराध पर्यो हमसों, अब क्यों सुधरें तुम हू धौ कहौ।
बाहुन देहि कुठारहि केशव, आपने धाम कौ पंथ गहौ।।”

(12) मन हर, मनहरण घनाक्षरी या कवित्त – यह वार्णिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं तथा अन्त में तीन लघु ( ।।।) होते हैं। 16, 17 वें वर्ण पर विराम (यति) होता है। उदाहरण-

“मेजे मन भावन के ऊधव के आवन की
सुधि ब्रज गाँवन में पावन जबै लगी।
कहै रत्नाकर सु ग्वालिन की झौर-झौर
दौरि-दौरि नन्द पौरि, आवन सबै लगी
उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै,
पेखि-पेखि पाती, छाती छोहन सबै लगी।
हमको लिख्यौ है कहा, हमको लिख्यौ है कहा,
हमको लिख्यौ है कहा, पूछन सबै लगी।।

(13) दुत विलम्बित – प्रत्येक चरण में 12 वर्ण, एक नगण, दो भगण तथा एक संगण होते है। उदाहरण-

“दिवसका अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा।।’

(14) मालिनी -“इस वार्णिक सम वृत्त छन्द में 15 वर्ण, दो तगण, एक मगण तथा 2 यगण होते हैं। आठ एवं 7 वर्ण एवं विराम होता है। उदाहरण-

“प्रभुदित मथुरा के मानवों को बना के,
सकुशल रह के औ विघ्न बाधा बचाके।
निज प्रिय सुत दोनों, साथ ले के सुखी हो,
जिस दिन पलटेंगे, गेह स्वामी हमारे।।”

(15) मन्दाक्रांता – इसके प्रत्येक चरण में 17 वर्ण होते हैं, एक मगण, एक भगण, एक नगण, दो तगण तथा दो गुरु होते हैं। 5, 6 तथा 7वें वर्ण पर यति (विराम) होता है। उदाहरण-

“कोई क्लांता पथिक ललना चेतना शून्य होके,
तेरे जैसे पवन में, सर्वथा शांति पावे।
तो तू हो के सदय मन, जा उसे शांति देना,
ले के गोदी सलिल उसका, प्रेम से तू सुखाना।।”

(16) इन्द्रव्रजा -“प्रत्येक चरण में 11 वर्ण, 2 तगण, 1 जगण तथा अंत में 2 गुरु होते हैं। उदाहरण-

“माता यशोदा हरि को जगावै।
प्यारे उठो मोहन नैन खोलो।
द्वारे खडै गोप बुला रहे हैं।
गोविन्द, दामोदर माधवेति।।”

(17) उपेन्द्रवजा – “इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण, 1 नगण, 1 तगण, 1 जगण अंत में दो गुरु होते हैं। उदाहरण-

“पखारते हैं पद पद्म कोई,
चढ़ा रहे हैं फल-पुष्प कोई।
करा रहे हैं पय-पान कोई
उतारते श्रीधर आरती हैं।।”

(18) चौपाई – “इसके चरण या दल में 15 मात्रा होती हैं, चरण के अन्त में गुरु लघु (ऽ।) होते हैं। उदाहरण-

(i) “बाल चरित प्रभु बहु विधि कीन्हा।
(ii) तेहि बिन निकट दसानन गयऊ।
तब मारीचिका कपट मृग भयऊ।

(19) अरिल्ल – प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं, चरण के अन्त में दो लघु अथवा यगण (।ऽऽ) होना चाहिए। उदाहरण-

“मन में विचार इस विधि आया।
कैसी है यह प्रभुवर माया।
क्यों आगे खड़ी है विषम बाधा।
मैं जपता रहा, कृष्ण-राधा।।”

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(20) लावनी – प्रत्येक चरण या दल में 22 मात्राएँ तथा चरण के अंत में गुरु (5) होते हैं। उदाहरण-

धरती के उर पर जली अनेक होली।
पर रंगों से भी जग ने फिर नहलाया।
मेरे अंतर की रही धधकती ज्वाला।
मेरे आँसू ने ही मुझको बहलाया।।”

(21) राधिका – प्रत्येक चरण में 22 मात्राएँ होती हैं। 13 और 9 पर यति (विराम) होता है। उदाहरण-

“बैठी है वसन मलीन पहिन एक बाला।
बुरहन पत्रों के बीच कमल की माला।
उस मलिन वसन में, अंग-प्रभा दमकीली।
ज्यों धूसर नभ में चन्द्रप्रभा चमकीली।।”

(21) दिग्पाल – इस छन्द के प्रत्येक चरण में 12-12 के विराम से 24 मात्रा होती हैं। उदाहरण-

हिमाद्रि तुंग-शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र तुम, दृढ़ प्रतिज्ञ सो चलो।
प्रशस्त पुण्य-पंथ है, बढ़े चलो-बढ़े चलो।

(22) तांटक – इसके प्रत्येक चरण में 30 मात्राएँ होती हैं। 16-14 पर विराम या यति होती है। उदाहरण-

(i) “यह मेरी गोदी की शोभा, सुख-सुहाग की है लाली।
शाही शान भिखारिन की है, मनोकामना मतवाली।

(ii) माँ ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने लाई थीं।।”

(23) वीर/आल्हा – इसके प्रत्येक चरण में 31 मात्राएँ होती है। 16, 15 पर यति (विराम) होता है। चरण के अंत में गुरु-लघु (5।) होते हैं। उदाहरण-

“पहले डंका के बाजते ही, ज्वाननि बाँध लीह्न हथियार।
बाजत ही घोड़नि कूद भये असवार।
खन-खन-खन-खन तेगा बाजै, छपक-छपक बाजै तलवार ।
मधा की बूंदनि गोली बरसै, छत्री कैर बार पार बार।।”

(24) त्रिभंगी – इसके प्रत्येक चरण में 32 मात्राएँ होती हैं। 10-8-8-6 पर यति (विराम) होता है और चरणांत में गुरु होता है। उदाहरण-

“परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट गई तप पुंज मही।
देखत रघुनायक जनसुखदायक सनमुख होकर जोर रही।
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा, मुख नहि आवत वचन कही।
अतिसय बड़भागी चरननि लागी जुगल नयन जलधार नहीं।

(25) इसके प्रथम और तृतीय चरणों में 12 मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ होती हैं। चरणांत में लघु होना आवश्यक है। उदाहरण-

“चम्पक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हिलाय।।”

(26) शालिनी – इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं, एक मगण, दो तगण और अंत में दो गुरु होते हैं। उदाहरण-

“बीथी-बीथी साधु को संग पैये।
संगे-संगे कृष्ण की कीर्ति गये।
गाये-गाये एक ताई प्रकासै।
एकै-एकै सच्चिदानन्द मासै।”

(28) भुजंगी – प्रत्येक चरण में 11 वर्ण तथा तीन सगण, एक लघु तथा एक गुरु होते हैं। उदाहरण-

“ना माधुर्य का तेरा भी पार है,
महा मोद भागीरथी सी भरी।
करो स्नान आओ शांति से,
मिले मुक्ति ऐसी न पाते यती।।”

(29) त्रोटक – इसके प्रत्येक चरण में 12 मात्रा तथा चार सगण होते हैं। उदाहरण-

“शशि से सखियाँ विनती करती,
टुक मंगल हो विनती करतीं।।
हरि के पद-पंकज देखन दै
पदि मोटक माहिं निहारन दै।।”

(30) मौक्तिक्त दान – प्रत्येक चरण 12 वर्ण, चार जगण। उदाहरण-

“बड़े जन को नहिं माँगन जोग
फबै छल साधन में लघु लोग।
रमापति विष्णु असंग अनूप,
धर्यो महि कारण वामन रूप।।”

(31) भुजंग प्रयात – प्रत्येक चरण में 12 वर्ण तथा 4 यगण होते हैं। उदाहरण-

“जिसे जन्म की भूमि याद आती नहीं है।
जिसे देश की याद आती नहीं है।
कृतघ्न भला कौन ऐसा मिलेगा,
उसे देख जी क्या किसी का खिलेगा ?

(32) वंशस्थ -“इसको प्रत्येक चरण में 12 वर्ण, एक नगण, एक तगण, एक जगण तथा एक रगण होते हैं। उदाहरण-

“गिरिन्द्र में व्याप्त विलोकनीय थी,
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी
असेत जम्बालिनि कूल जम्बुकीय।”

(33) बसंत तिलका -“प्रत्येक चरण में 14 वर्ण, एक तगण, एक भगण, दो जगण तथा दो गुरु तथा आठवें स्थान पर यति होती है। उदाहरण-

श्री राधिका मधुर मोदमयी मनोज्ञा।
नाना मनोहर रहस्यमयी अनूठी।
जो है सदैव लतिकादिक सो है,
होती दयालु अपने समुपासकों को।।”

(34) शिखरिणी – इसके प्रत्येक चरण में 17 वर्ण, एक यगण, एक भगण, एक नगण, एक सगण, एक भगण और एक गुरु 6 तथा 11वें वर्ण पर विराम होता है। उदाहरण-

“सिला पै गेरु से कुपित ललना तोहि लिख के।
धर्यो जो लौ चाहूँ सिर अपने पग पै।
चलै तो लौ आँसू उमगि मग रोकें इगनिके।
नहीं धाता धाती चहत हम याहू विधि मिले।।

(35) शार्दूल विक्रीडित – प्रत्येक चरण में वर्ण संख्या 19, एक मगण, एक सगण, एक जगण, एक सगण, दो तगण एवं एक गुरु 17वें और 12वें वर्ण पर यति। उदाहरण-

“ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती और देखती व्योम को।
त्यों ही त्यों उनका प्रगाढ़ दुःख भी दुर्दान्त था हो रहा।
आँखों से अविराम अश्रु बहते थे, शांति देते नहीं।
बारम्बार अशक्त कृष्ण जननी थी मूर्छिता हो रही।।”

(36) हरिणी – प्रत्येक चरण में 17 वर्ण, एक नगण, एक सगण, एक भगण, एक रगण, एक सगण, एक लघु और गुरु होते हैं। 6, 4 तथा 7वें वर्ण पर विराम होता है। उदाहरण-

“अभिजनवती नारी उच्च स्थिता सहसा सदा।
ललित अपने द्वारा नित्य प्रतिष्ठित हो रही।
सुखद सपने देखे, कैसे कहाँ, पर सर्वदा
विरह जनिता पीड़ा क्यों प्रार्थना मिल जाएगी।”

(37) वियोगिनी – इसके सम (द्वितीय एवं चतुर्थ) चरणों में 11-11 तथा विषम (प्रथम एवं तृतीय) चरणों में 10वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण, एक जगण और एक सगण तथा लघु और एक गुरु होते हैं। उदाहरण-

“विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।


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