कारक | कारक की परिभाषा, उदाहरण एंव भेद | karak in hindi

karak in hindi – कारक की परिभाषा, कारक के भेद,  कारक के चिन्ह, संप्रदान कारक, कारक के उदाहरण, कर्ता कारक इन सभी बिन्दुओं के बारे में हमने इस आर्टिकल में बताया है.

कारक | कारक की परिभाषा

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम) सम्बन्ध सूचित हो, उसे ‘कारक‘ कहते हैं। इन दोनों परिभाषाओं‘ का मतलब यह हुआ कि संज्ञा अथवा सर्वनाम के आगे जब ‘ने‘ ‘को’ ‘से‘ आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही ‘कारक‘ कहलाता है।

इन ‘ने‘ को ‘से’ आदि विभक्तियों से ही संज्ञा या सर्वनाम वाक्य के अन्य शब्दों से सम्बन्ध रख पाते हैं। ने‘ ‘को’ ‘से‘ आदि विभिन्न विभक्तियाँ विभिन्न कारकों की हैं। इनके लगने पर ही कोई शब्द ‘कारक पद‘ बन जाता है।

जैसे – ‘श्याम ने महेश से पैसे लाने को कहा था।’ इस वाक्य में श्याम ने’ ‘महेश से’ संज्ञाओं के रूपान्तर है, जिनके द्वारा इन संज्ञाओं का सम्बन्ध लाने को कहा’ क्रिया के साथ बन गया।

karak ke bhed in hindi

कारक के भेद | karak ke bhed

हिन्दी में कारक के आठ भेद होते हैं और कारकों के बोध के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय (चिह्न) लगाये जाते हैं, उन्हें व्याकरण में विभक्तियाँ‘ कहते हैं। कुछ लोग इन्हें परसर्ग भी कहते हैं। विभक्ति से बने शब्द रूप को ‘विभक्त्यन्त शब्द या ‘पद कहते हैं।
हिन्दी कारकों के आठ भेद निम्न हैं –

  1. कर्ता (Nominative)
  2. कर्म (Objective)
  3. करण (Instrument)
  4. सम्प्रदान (Dative)
  5. अपादान (Ablative)
  6. सम्बन्ध (Gentue)
  7. अधिकरण (Locative)
  8. सम्बोधन (Addressive)

कर्ता कारक | karta karak

कारक की परिभाषा – वाक्य में जो शब्द काम करने वाले के अर्थ में प्रयोग में आता है, उसे ‘कर्ता‘ कहते हैं। जैसे – राम खाता है। इस वाक्य में खाने का काम ‘राम‘ करता है। अतः ‘कर्ता‘ राम है।
इसकी दो विभक्तियाँ हैं – ‘ने’ और ‘0′। संस्कृत का कर्ता ही हिन्दी में कर्ताकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है।

कर्ता के ‘ने’ चिन्ह का प्रयोग

कर्त्ताकारक की विभक्ति ‘ने’ है। बिना विभक्ति के भी कर्ताकारक का प्रयोग होता है। ‘अप्रत्यय कर्ताकारक’ में ‘ने‘ का प्रयोग न होने के कारण वाक्य रचना में कोई खास कठिनाई नहीं होती। थोड़ी सावधानी रखी जाए और इसकी उत्पत्ति को ध्यान में रखा जाए, तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि “इसका स्वरूप तथा प्रयोग जैसा संस्कृत में है, वैसा हिन्दी में है।”

खड़ी बोली हिन्दी में ‘ने‘ चिह्न कर्ताकारक में संज्ञा-शब्दों की एक विशिष्ट विभक्ति है, जिसकी स्थिति बड़ी नपी-तुली और स्पष्ट है। ‘ने‘ का प्रयोग केवल हिन्दी और उर्दू में होता है। यहाँ यह देखना है कि हिन्दी भाषा में ‘ने‘ का प्रयोग कहाँ होता है और कहाँ नहीं होता।

कर्ता के ‘ने’ का प्रयोग कहाँ होता है ?

(1)ने’ का प्रयोग कर्ता के साथ तभी होता है, जब क्रिया सकर्मक तथा सामान्यभूत, आसन्नभूत, पूर्णभूत, हेतु-हेतुमद्भूत और सन्दिग्ध भूतकालों की और कर्तृवाच्य की हो।

सामान्यभूत – मोहन ने रोटी खायी।
आसन्नभूत – मोहन ने गेटी खायी है।
पूर्णभूत – मोहन ने रोटी खायी थी।
सन्दिग्धभूत – मोहन ने रोटी खायी होगी।
हेतुहेतुमद्भूत – श्याम ने मेहनत की होती तो उत्तीर्ण हुआ होता।

अर्थात् यह स्पष्ट है कि केवल अपूर्णभूत को छोड़ शेष पाँच भूतकालों में ‘ने‘ का प्रयोग होता है।

(2) जब संयुक्त क्रिया के दोनों खण्ड सकर्मक हों, तो अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में कर्ता के आगे ‘ने‘ चिह्न का प्रयोग होता है। जैसे – राम ने पानी भर दिया।
सीता ने खाना पका लिया।
इन उदाहरणों में काले टाइपवाली संयुक्त क्रियाओं के दोनों खण्ड सकर्मक हैं।

(3) सामान्यत : अकर्मक क्रिया में ‘ने‘ विभक्ति नहीं लगती, किन्तु कुछ ऐसी अकर्मक क्रियाएँ हैं. जैसे – नहाना, छींकना, थूकना, खाँसना-जिनमें ‘ने‘ चिह्न का प्रयोग अपवादस्वरूप होता है। इन क्रियाओं के बाद कर्म नहीं आता। जैसे – उसने थूका। राम ने छींका। उसने खाँसा।

(4) जब अकर्मक क्रिया सकर्मक क्रिया के भाव में प्रयोग की जाये तो वहाँ भी ‘ने‘ का प्रयोग किया जाता है। जैसे – उसने टेढ़ी चाल चली। उसने लड़ाई लड़ी।

(5) प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ, अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में ‘ने‘ का प्रयोग होता है। जैसे – उसने एक रुपया दिलवाया।

ने’ का इस्तेमाल किस स्थान पर त्रुटिपूर्ण है ?

(1) सकर्मक क्रियाओं के कर्ता के साथ भविष्यत्काल में ‘ने‘ का प्रयोग बिलकुल नहीं होता।

(2) बकना, बोलना, भूलना – ये क्रियाएँ यद्यपि सकर्मक हैं, तथापि अपवादस्वरूप सामान्य, आसन्न, पूर्ण और सन्दिग्ध भूतकालों में कर्ता के ‘ने’ चिह्न का व्यवहार नहीं होता। यथा – मैं बोला, वह भूला, मैं भूला।

(3) यदि संयुक्त क्रिया का अन्तिम खण्ड अकर्मक हो, तो उसमें ‘ने’ का प्रयोग नहीं होता। जैसे- मैं खा चुका होउँगा। वह पुस्तक ले आया।

(4) जिन वाक्यों में लगना, जाना, सकना तथा चुकना सहायक क्रियाएँ आती हैं उनमें ‘ने‘ का प्रयोग नहीं होता। जैसे – वह खा चुका। मैं पानी पीने लगा। उसे दिल्ली जाना है।

कर्म कारक | Karm karak

कर्म कारक की परिभाषा – वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। इसकी विभक्ति ‘को‘ है।
कर्मकारक का प्रत्यय चिह्न ‘को‘ है। बिना प्रत्यय के या अप्रत्यय कर्म के कारक का भी प्रयोग होता है। इसके भी निश्चित नियम बनाये गये हैं-

(1) सुलाना, कोसना, पुकारना, जगाना, भगाना, खिलाना, नहलाना इत्यादि क्रियाओं के कर्मों के साथ ‘को‘ विभक्ति लगती है।
जैसे – मैंने मोहन को बुलाया।
सीता ने रवि को फल खिलाया।
शीला ने सावित्री को जी भर कोसा।
कवि ने आयोजक को पुकारा।
लोगों ने उस पागल को नहलाया।

(2) मारना‘ क्रिया का अर्थ जब ‘पीटना‘ होता है, तब कर्म के साथ विभक्ति लगती है, पर यदि उसका अर्थ ‘शिकार करना होता है, तो विभक्ति नहीं लगती, अर्थात् कर्म अप्रत्यय रहता है।
जैसे – लोगों ने चोर को मारा। पर – शिकारी ने बाघ मारा।
हरि ने बैल को भगाया। पर – मछुए ने मछली पकड़ी।

(3) बहुधा कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति जताने के लिए कर्म सप्रत्यय रखा जाता है। जहाँ कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध कराने की आवश्यकता न हो, वहाँ सभी स्थानों पर कर्म को सप्रत्यय नहीं रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त जब कर्म निर्जीव वस्तु हो, तब ‘को‘ का प्रयोग नहीं होना चाहिए।

जैसे – राम ने रोटी को खाया की अपेक्षा राम ने रोटी खायी‘ ज्यादा अच्छा है। प्रायः चेतना पदार्थों के साथ ‘को‘ चिन्ह का प्रयोग होता है और अचेतन के साथ नहीं। पर, यह अन्तर वाक्य प्रयोग पर निर्भर करता है।

(4) कर्म सप्रत्यय रहने पर क्रिया सदैव पुल्लिग प्रयोग की जायेगी। किन्तु कर्म प्रत्ययहीन होने पर क्रिया कर्म के अनुसार पुल्लिग या स्त्रीलिंग प्रयोग की जायेगी।

(5) यदि विशेषण संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हों, तो कर्म में को‘ अवश्य लगता है। जैसे – कर्तव्य को महत्व दो, छोटों को प्यार करो।

करण कारक | karan karak

करण कारक की परिभाषा – वाक्य में जिस शब्द से क्रिया के सम्बन्ध का बोध हो, उसे करणकारक कहते हैं। करण कारक के सबसे अधिक प्रत्यय चिन्ह हैं।

करण कारक के चिन्ह है – से, द्वारा, के द्वारा, के जरिए, के साथ, के बिना इत्यादि। इन चिन्हों में अधिकतर प्रचलित से, ‘द्वारा’, के द्वारा’, ‘के जरिए’ इत्यादि ही हैं। ‘करण‘ का अर्थ है साधन‘। अतः ‘से‘ चिन्ह ही करणकारक का चिन्ह है जहाँ यह ‘साधन‘ के अर्थ में प्रयुक्त हो।
जैसे – मुझसे यह खाना न खाया जायेगा। यहाँ ‘मुझसे‘ का अर्थ है ‘मेरे’ द्वारा! अत: ‘साधन‘ को इंगित करने के कारण यहाँ ‘मुझसे’ का ‘से‘ करण का विभक्ति चिन्ह है।

(1) अन्य कारकों की तुलना में करणकारक का क्षेत्र कार्य अत्यन्त वृहद् है। इसलिए करणकारक में अन्य समस्त कारकों से छूटे हुए प्रत्यय या वे पद जो अन्य किसी कारक में आने से बच गए हो, सम्मिलित हो जाते हैं। अत: इनकी कुछ सामान्य पहचान और नियम जान लेना आवश्यक है-

(i) ‘से‘ करण और अपादान दोनों विभक्तियों का चिन्ह है। किन्तु साधनभूत का प्रत्यय होने पर करण माना जायेगा, जबकि अलगाव का प्रत्यय होने पर अपादान।
जैसे– वह हाथों से साईकिल चलाता है।
मुझे अपनी मेहनत से खाना मिलता है।
करण गरिष्ठ भोजन करने से सेहत बिगड़ती है।
आकाश से जहाज गिरा। घर से लौटा हुआ लड़का।
अपादान छत से उतरी हुई लता। पेड़ से गिरा साँप।

(2) ‘ने‘ सप्रत्यय कर्ताकारक का चिन्ह है। किन्तु ‘से’के द्वारा’ और ‘के जरिये‘ हिन्दी में प्रधानतः करणकारक के ही प्रत्यय माने जाते हैं क्योंकि ये सारे प्रत्यय ‘साधन‘ अर्थ की ओर इंगित करते हैं।

जैसे – मुझसे यह काम पूरा न होगा।
गाड़ी से सामान फेंक दिया गया।
उसके द्वारा यह तथ्य सामने आये थे।
उसके द्वारा मकान गिराया गया था।
आपके जरिए ही घर का पता चला।

(3) भूख, प्यास, जाड़ा, आँख, कान, पाँव इत्यादि शब्द यदि एकवचन करणकारक में सप्रत्यय रहते हैं, तो एकवचन होते हैं और अप्रत्यय रहते हैं, तो बहुवचन। जैसे – वह भूख से बेचैन है  ।   वह भूखों बेचैन है।
मैंने अपनी आँख से यह घटना देखी। मैंने अपनी आँखों वह घटना देखी।

सम्प्रदान कारक | Sampradan karak

जिसके लिए कुछ किया जायेगा जिसको कुछ दिया जाय, इसका भाव वाले शब्द के रूप को सम्प्रदानकारक की श्रेणी में रखा जाता है।

(1) कर्म और सम्प्रदान का एक ही विभक्ति प्रत्यय है ‘को‘ पर दोनों के अर्थों में अन्तर है। सम्प्रदान का को‘, ‘के लिए’ अव्यय के स्थान पर या उसके अर्थ में प्रयुक्त होता है, जबकि कर्म के ‘को‘ का ‘के लिए’ अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है।

नीचे लिखे वाक्यों पर ध्यान कीजिए –
कर्म – हरि मोहन को मारता है।
सम्प्रदान – हरि मोहन को रुपये देता है।
कर्म – माँ ने बच्चे को खेलते देखा।
सम्प्रदान – माँ ने बच्चों को खिलौने खरीदे।

(2) साधारणत : जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई काम किया जाता है, वह पद सम्प्रदानकारक का होता है। जैसे-भूखों को अन्न देना चाहिए और प्यासों को जल।

(3) के हित’, ‘के वास्ते’, ‘के निमित‘ आदि प्रत्यय वाले अव्यय भी सम्प्रदानकारक के प्रत्यय है। जैसे– राम के हित लक्ष्मण वन गये थे।

अपादान कारक | Apadan karak

अपादान कारक की परिभाषा – संज्ञा रूप जो किसी वस्तु को पृथक करने का बोध कराये उसे अपादानकारक कहते हैं। जिस शब्द में अपादान की विभक्ति लगती है, उससे किसी दूसरी वस्तु के अलग होने का बोध होता है।
जैसे – पेड़ से फल गिरते हैं।
वह घर से बाहर आया।
मोहन घड़े से पानी डालता है।
चोर पुल से कूद पड़ा।
लड़का पेड़ से गिरा।
कढ़ाही चूल्हे से गिर गयी।

सम्बन्ध कारक | Sambandh karak

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ सम्बन्ध या लगाव प्रतीत हो, उसे सम्बन्ध वाचक कहते हैं। सम्बन्धकारक का विभक्ति चिन्ह ‘का‘ है। इस कारक से अधिकार कार्य-कारण, मोल-भाव, परिमाण इत्यादि का बोध होता है।

सम्बन्ध कारक के उदाहरण 

अधिकार – राम की किताब, श्याम का घर, लोहार का हथौड़ा।
कार्य-कारण – चाँदी की थाली, सोने का गहना, ताँबे का बर्तन, मिट्टी का घड़ा।
मोल-भाव – चार रुपये के गेहूं, पांच रुपये का घी।
परिमाण – सौ मील की दूरी, पाँच कदम की दूरी, पाँच हाथ की लाठी।

  • सर्वनाम की स्थिति में सम्बन्धकारक का प्रत्यय रा-रे-री और ना-ने-नी हो जाता है। जैसे – मेरा थैला, मेरी बकरी, तुम्हारा पैसा, तुम्हारी लाठी, अपना भाई, अपना घर।

अधिकरण कारक | Adhikaran karak

क्रिया या आधार को सूचित करने वाली संज्ञा या सर्वनाम के स्वरूप को अधिकरणकारक कहते हैं।

अधिकरण कारक के उदाहरण 

(1) कभी-कभी ‘में‘ के अर्थ में पर‘ और ‘पर‘ के अर्थ में में‘ का प्रयोग होता है। जैसे – तुम्हारे घर पर कुछ आदमी हैं = घर में।
दुकान पर कोई नहीं था = दुकान में
नाव जल में तैरती है = जल पर।

(2) कभी-कभी अधिकरणकारक की विभक्तियों का लोप भी हो जाता है। जैसे – इन दिनों वह आगे है। वह सन्ध्या समय यमुना किनारे जाता है। वह द्वार-द्वार पूछता है। बच्चे दरवाजे-दरवाजे शोर मचा रहे हैं। जिस समय वह आया था, उस समय मैं नहीं था।

(3) किनारे, आसरे और दिनों जैसे पद स्वयं सप्रत्यय अधिकरणकारक के है और यहाँ, वहाँ, समय आदि पदों का अर्थ सप्रत्यय अधिकरणकारक का है। अत: इन पदों की स्थिति में अधिकरणकारक का प्रत्यय नहीं लगता। इसके उदाहरण दिये जा चुके हैं।

सम्बोधन कारक | Sambodhan karak

संज्ञा के जिस रूप से किसी के पुकारने या संकेत करने का भाव पाया जाता है, उसे सम्बोधनकारक कहते हैं। जैसे – हे भगवान ! मेरी रक्षा कीजिए। इस वाक्य में ‘हे भगवान’ से पुकारने का बोध होता है। सम्बोधनकारक की कोई विभक्ति नहीं होती है। सम्बोधनकारक के चिन्ह ‘हे’, ‘अरे‘, ‘रे‘ आदि शब्दों का प्रयोग होता है.

कारक की परिभाषा?

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका सम्बन्ध सूचित हो, उसे ‘कारक‘ कहते हैं।

कारक के भेद ?

हिन्दी कारकों के आठ भेद निम्न हैं –
कर्ता (Nominative)
कर्म (Objective)
करण (Instrument)
सम्प्रदान (Dative)
अपादान (Ablative)
सम्बन्ध (Gentue)
अधिकरण (Locative)
सम्बोधन (Addressive)

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